000 04887nam a22001817a 4500
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003 0
005 20220408180947.0
020 _a9789380441368
082 _aH LAL
100 _aLaltoo
245 _aKoi lakeer sach nahi hoti
250 _a1st ed.
260 _aBikaner
_bBagdevi Prakashan
_c2016
300 _a128 p.
520 _aभाषा है सरलतम लेकिन अभिव्यक्ति जटिल हो गयी है... लाल्टू की कविता की यह केन्द्रीय चिन्ता है और उसकी कविता की पूरी बनक में भी इस उलझन को देखा-सुना जा सकता है। ये कविताएँ एक स्तर पर बहुत वैयक्तिक या निजी होते हुए भी उनमें हमारे समय और समाज की चिन्ताएँ विन्यस्त हैं। वह एक साथ अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी है। वह उस्तादाना अंदाज में अंदर बाहर के बीच आवाजाही करती रहती है। अपूर्ण बचपन और भटकती मध्यवयता कुछ भी अलग-अलग बैटा हुआ नहीं है। वह सब जो उसके अंदर है उसे कवि अपनी कविता में ढूंढ़ता दिखता है। इसीलिए ऐसी कई कविताओं में कहीं बहुत गहरी उदासी का स्वर झाँकता दिख सकता है। इस उदासी और गहरी निराशा के बीच ही रिश्तों का तार बार-बार झनझनाता हुआ सुनाई पड़ता है। लाल्टू विज्ञान के मिथकों या रूपकों का बहुत इस्तेमाल तो नहीं करते लेकिन एक दृष्टि जो विज्ञान ने बनाई है वह जीवन और प्रकृति को अलग ढंग से देखने की हिकमत तो देती ही है और यह बात कविता को कुछ अलग और विशिष्ट बनाती है। ऋतुओं के साथ पक्षी भी बदल जाते हैं लेकिन हमारी भाषा को नष्ट करने या खत्म करने के कुचक्र के चलते हम उन पक्षियों के अपने देशज नाम भी भूल गये हैं जिन्हें कभी बचपन में हम जानते थे। देसी नाम ही नहीं, बचपन को भी हम भूल रहे हैं। कभी-कभी पक्षियों को देखकर वापस हम अपने बचपन को याद करते हैं। यह ऐसा समय है जब ज्ञान को अलग अलग हिस्सों में विभाजित कर दिया गया है। वैज्ञानिक को विज्ञान करना है, अर्थशास्त्री को अर्थशास्त्र लिखना है लेकिन कवि को तो सपनों के बारे में लिखना है इसलिए वह सपनों की चीरफाड़ करता है। लाल्टू की कविता अब भी उस स्वप्न को कविता में बचाये रखना चाहती है जो दुनिया को बेहतर दुनिया बनाने का स्वप्न है। इन कविताओं में चाहे इस बात की निराशा हो कि खुद से गुफ़्तगू करने की कोशिश में वह बार-बार हार रहा है, पर साथ ही यह भरोसा भी लगातार कहीं बना हुआ है कि जो भी कहीं बोल रहा है उसकी साँस थोड़ी सी मेरी भी साँस है। वह जानता है कि चलती हवा के विरोध में खड़े लोगों की साँसें दूर तक पहुँचती हैं।
650 _aKavitayen
942 _cB