000 | 03268nam a2200169Ia 4500 | ||
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999 |
_c32426 _d32426 |
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005 | 20220727213813.0 | ||
008 | 200202s9999 xx 000 0 und d | ||
082 | _aH 407 Gup | ||
100 | _aGupta, Manorama | ||
245 | 0 | _aBhasha-shikshan siddhant aur pravidhi | |
260 | _aAgra | ||
260 | _bKendriya Hindi Sansthan | ||
260 | _c1985 | ||
300 | _a411 p. | ||
520 | _aभाषा को मानवीय सम्प्रेषण का एकमात्र प्रभावी साधन स्वीकार किया गया है। विभिन्न अभिलक्षणों से युक्त भाषा के प्रयोग की कुशलता मानव मात्र की अपनी विशिष्टता है। यही कारण है कि मानव अस्तित्व एवं भाषा को परस्पर पूरक माना गया है। भाषा विहीन समाज की कल्पना दुःसाध्य है, इसी प्रकार मानव विहीन भाषा का भी रूप अचिन्तनीय है। वस्तुतः मानव तथा भाषा का अस्तित्व इस सीमा तक प्रगाड़ रूप से संयुक्त है कि इनका एकांतिक विवेचन संभव नहीं है । मानवीय विकास का, व्यक्तित्व के विविध पक्षों का उद्घाटन भाषा के द्वारा ही संभव है और भाषा का स्वरूप मानव समाज के द्वारा ही गठित होता है । मानव शिशु जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन के रूप में भाषा को उपार्जित करता है। निरन्तर अभ्यास के फलस्वरूप मातृभाषा पर उसका सहज अधिकार स्थापित हो जाता है। औपचारिक शिक्षा के क्रम में वह भाषा के मानक रूप से परिचित होता है। मातृभाषा से इतर अन्य भाषा तथा विदेशी भाषाओं के अध्ययन का भी अवसर उसे प्राप्त होता रहता है। इन विविध भाषाओं के शिक्षणगत उद्देश्यों में भिन्नता सहज रूप से परिलक्षित होती है। अतः भाषा, मातृभाषा, द्वितीय भाषा तथा विदेशी भाषा की संकल्पनाओं तथा उद्देश्यों को प्रथम अध्याय का प्रतिपाद्य विषय स्वीकार किया गया है। | ||
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_cB _2ddc |