000 | 04273nam a2200169Ia 4500 | ||
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999 |
_c30698 _d30698 |
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005 | 20220803171432.0 | ||
008 | 200202s9999 xx 000 0 und d | ||
082 | _aH 491.25 SHU | ||
100 | _aShukla, Shriprakash | ||
245 | 0 | _aPaniniya vyakran evam agnipuran mein nirupit vyakran | |
260 | _aDelhi | ||
260 | _bJ.P. | ||
260 | _c1990 | ||
300 | _a215 p. | ||
520 | _aकिसी भी वाङ्मय के यथार्थ ज्ञान के लिए उसके व्याकरण को जानना अति आवश्यक है । वैदिक काल में ही वेदों को समझने और उसके मूल पाठ को बनाए रखने के लिए शिक्षा एवं प्रातिशाख्य सरीखे ग्रन्थ रचे गये और शब्दों का निर्वाचन निरुक्त के रूप में सामने आया। किन्तु व्याकरण का जो सर्वमान्य स्वल्प आज सामने है। वह महर्षि पाणिनि का तपःफल है। पाणिनीय व्याकरण में जितनी समग्रता और सूक्ष्मता के साथ संस्कृत भाषा का विवेचन किया गया है उतना अन्य किसी व्याकरण में सम्भव नहीं हो सका है। पाणिनीय व्याकरण की तकनीक का अध्ययन ही अपने आप में बड़ा रोचक है। पाणिनीय व्याकरण के अध्ययन के पश्चात मेरी यह इच्छा हुई कि विश्वकोश स्वरूप पुराणों में निर्दिष्ट व्याकरण को इस व्याकरण की कसौटी पर कसा जाय। पुराणों के अध्ययनोपरान्त यह ज्ञात हुआ कि अग्निपुराण में वर्णित व्याकरण अन्य पुराणों में वर्णित व्याकरण की अपेक्षा विस्तृत एवं सारगर्भित है। अतः अग्निपुराण में वर्णित व्याकरण को ग्रन्थ का मुख्य विषय बनाया यद्यपि अग्निपुराण में वर्णित व्याकरण को अग्निपुराण के ३४६वें अध्याय में कौमार व्याकरण की संज्ञा दी गई है किन्तु इसमें आए सिद्ध प्रयोग पाणिनीय व्याकरण परम्परा के ग्रन्थों सिद्धान्त कौमुदी आदि के सिद्ध प्रयोगों के अनुरूप है। अतः इन सिद्ध प्रयोगों के अध्ययन से विभिन्न विश्व विद्यालयों के स्नातक तथा परास्नातक विद्यार्थियों को पाणिनीय व्याकरण के सिद्धान्त कौमुदी आदि ग्रन्थों के अध्ययन में बहुत सुविधा मिलेगी । इस सुविधा को ध्यान में रखते हुए ग्रन्थ को आठ अध्यायों में विभक्त करके प्रत्याहार, संज्ञा, सन्धि, सुबन्त, कारक, समास तद्वित तिड़ंत, कृदन्त, एवं उणादि इत्यादि प्रकरणों का विस्तृत विवेचन किया गया है । | ||
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_cB _2ddc |