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Aupniveshik mansikta se mukti ; siksha aur sanskriti ke rajniti / ed. aur tr. by Anand savrupa v.1999

By: Material type: TextTextPublication details: New Delhi; Granth sheelpi; 1999Description: 163pISBN:
  • 8186684522
DDC classification:
  • H 370 THU
Summary: औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति : शिक्षा और संस्कृति की राजनीति समय-समय पर शिक्षा, संस्कृति, भाषा और राजनीति के आपसी रिश्तों को लेकर लिखे गए न्गुगी के लेखों का संकलन है। इन लेखों में इसका स्पष्ट संकेत है कि भाषा, संस्कृति और शिक्षा का राजनीति से गहरा रिश्ता है। इसलिए औपनिवेशिक सांस्कृतिक हमले के प्रतिरोध के बीज संस्कृति में ही छिपे होते हैं, जो आगे चलकर मुक्ति आंदोलन के निर्माण और विकास में सहायक होते हैं। पुस्तक का सांस्कृतिक आधारफलक काफी व्यापक है जिसमें उसके अलग-अलग पहलुओं को समेटा गया है। जिन मुद्दों को लेकर लेखक ने अपनी बात कहने की कोशिश की है, वे इस प्रकार हैं : भाषा का साम्राज्यवाद, नवऔपनिवेशिक राज्य और संस्कृति का चरित्र, साम्राज्यवाद और क्रांति, नस्लवादी विचारधारा, साहित्य में नस्लवाद, राष्ट्रीय संस्कृति के लिए शिक्षा, स्कूलों में साहित्य का अध्ययन, अफ्रीकी साहित्य के विकास में बुद्धिजीवियों की भूमिका और अफ्रीकी साहित्य की भाषा। ये सवाल भारतीय उपमहाद्वीप के शैक्षिक सांस्कृतिक विकास से भी जुड़े हुए हैं। हमारे देश पर भी दिनोंदिन अंग्रेजी भाषा और औपनिवेशिक संस्कृति का दबाव बढ़ता जा रहा है। शासक वर्ग ने भारतीय भाषाओं को दोयम दर्जे की स्थिति में ढकेल दिया है। ऐसा करने के लिए यह वर्ग पश्चिम से साठगांठ किए हुए है। यह पुस्तक हमें इस स्थिति का मुकाबला करने का मार्ग सुझाती है।
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Books Books Gandhi Smriti Library H 370 THU (Browse shelf(Opens below)) Available 67281
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औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति : शिक्षा और संस्कृति की राजनीति समय-समय पर शिक्षा, संस्कृति, भाषा और राजनीति के आपसी रिश्तों को लेकर लिखे गए न्गुगी के लेखों का संकलन है। इन लेखों में इसका स्पष्ट संकेत है कि भाषा, संस्कृति और शिक्षा का राजनीति से गहरा रिश्ता है। इसलिए औपनिवेशिक सांस्कृतिक हमले के प्रतिरोध के बीज संस्कृति में ही छिपे होते हैं, जो आगे चलकर मुक्ति आंदोलन के निर्माण और विकास में सहायक होते हैं। पुस्तक का सांस्कृतिक आधारफलक काफी व्यापक है जिसमें उसके अलग-अलग पहलुओं को समेटा गया है। जिन मुद्दों को लेकर लेखक ने अपनी बात कहने की कोशिश की है, वे इस प्रकार हैं : भाषा का साम्राज्यवाद, नवऔपनिवेशिक राज्य और संस्कृति का चरित्र, साम्राज्यवाद और क्रांति, नस्लवादी विचारधारा, साहित्य में नस्लवाद, राष्ट्रीय संस्कृति के लिए शिक्षा, स्कूलों में साहित्य का अध्ययन, अफ्रीकी साहित्य के विकास में बुद्धिजीवियों की भूमिका और अफ्रीकी साहित्य की भाषा। ये सवाल भारतीय उपमहाद्वीप के शैक्षिक सांस्कृतिक विकास से भी जुड़े हुए हैं।

हमारे देश पर भी दिनोंदिन अंग्रेजी भाषा और औपनिवेशिक संस्कृति का दबाव बढ़ता जा रहा है। शासक वर्ग ने भारतीय भाषाओं को दोयम दर्जे की स्थिति में ढकेल दिया है। ऐसा करने के लिए यह वर्ग पश्चिम से साठगांठ किए हुए है। यह पुस्तक हमें इस स्थिति का मुकाबला करने का मार्ग सुझाती है।

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