Panchal, Parmanand

Hindi:bhasha,rajbhasha aur lipi - Delhi Hindi Book Center 2001 - 195 p.

हिन्दी का इतिहास प्रायः एक हजार वर्ष पुराना है। इस काल अवधि में हिन्दी में विभिन्न विधाओं में निःसन्देह विपुल समृद्ध और सक्षम साहित्य की रचना हुई है। देश की सामाजिक संस्कृति की सबल संवाहिका के रूप में आरम्भ से ही हिन्दी प्रेम, सौहार्द और राष्ट्रीय एकता की प्रतीक रही है। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान गांधी जी और अन्य अग्रणी राष्ट्र नेताओं ने राष्ट्रभाषा के रूप में इसकी सही पचनान की थी। स्वतन्त्र भारत के संविधान में हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किए जाने से इसकी भूमिका गुरुतर होकर बहुआयामी ओर बहुउद्देशीय हो गई है। इसे साहित्य ही नहीं, शासन, प्रशासन, ज्ञान-विज्ञान और प्रोद्यौगिकी तथा सूचना आदि के क्षेत्र में एक सक्षम और समृद्ध माध्यम के रूप में अपने दायित्वों का निर्वाह करना है। निःसन्देह इस दिशा में हिंदी आगे बढ़ रही है। अपेक्षित आशाओं की पूर्ति न होने के उपरान्त भी हिंदी का स्थान राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में निरंतर बढ़ रहा है। विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा और विश्व के सबसे बड़े गणराज्य की राजभाषा होने के नाते, हिंदी ने अपनी वैश्विक पहचान भी स्थापित की है। भारत ही नहीं संसार के अनेक देशों में हिंदी बोली और समझी जाती है। विश्व के डेढ़ सौ से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी का पठन-पाठन भी हो रहा है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अब तक छह विश्व हिंदी सम्मेलन भी आयोजित हो चुके हैं। इस प्रकार हिंदी अब प्रादिशिक भाषा ही नहीं, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकृति पा चुकी है।
हिंदी के इस विविध आयामी स्वरूप को दृष्टि में रखते हुए. मैंने हिंदी भाषा और साहित्य तथा लिपि के संबंध में समय-समय पर लिखे गए अपने लेखों को क्रमबद्ध और सुसंगत रूप में पुस्तकाकार रूप देने का प्रयास किया है। विषयों की विविधता की दृष्टि से पुस्तक को तीन भागों अर्थात् भाषा, राजभाषा और लिपि खंडों में विभाजित कर दिया गया है।

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