रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ‘शिक्षा का विस्तार' नामक अपने एक लेख में लिखा है, “आजकल हम जिसे एजूकेशन कहते हैं उसका आरंभ शहर में होता है । व्यवसाय और नौकरी उसके पीछे-पीछे आनुषंगिक रूप से चलते हैं। यह विदेशी शिक्षाविधि रेलगाड़ी के डब्बे में जलने वाले दीप की तरह है - डब्बा उज्ज्वल है, लेकिन जिस प्रदेश से रेल गुजर रही है वह सैंकड़ों मील तक अंधकार में लुप्त है...."
इसी लेख में आगे वे लिखते हैं, "हमारे देश में एक ओर, सनातन शिक्षा का प्रवाह रुक गया है, जनसाधारण के लिए ज्ञान का अकाल पड़ा है, दूसरी ओर, आधुनिक युग की विद्या का आविर्भाव हुआ है। इस विद्या की धारा देश की जनता की ओर नहीं बहती । इसका पानी अलग-अलग जगहों पर जमा हो गया है; पत्थर के कुछ कुण्ड बन गए हैं; दूर-दूर से यहां आकर पण्डों को दक्षिणा देनी पड़ती है। गंगा शिवजी की जटाओं से नीचे उतरती है, साधारण लोगों के लिए घाट-घाट प्रस्तुत होती है, कोई भी अपने घट में उसका प्रसाद भर सकता है। लेकिन हमारे देश की आधुनिक विद्या वैसी नहीं, उसका केवल विशिष्ट रूप है, साधारण रूप नहीं....."
प्रस्तुत पुस्तक में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की संक्षिप्त जीवनी के साथ उनके शिक्षा विषयक लेखों को संकलित किया गया है। इस पुस्तक से अध्यापकों, विद्यार्थियों, अभिभावकों, शिक्षाकर्मियों और आम पाठकों को रवीन्द्रनाथ के शैक्षिक चिंतन को समझने में मदद मिलेगी।