पुस्तक सामाजिक परिवर्तन और शिक्षा की पारस्परिक अभिक्रिया का विश्लेषण और विवेचन प्रस्तुत करती है। परिवर्तन का समाज की संरचना, मानवीय संबंध और मूल्यों पर प्रभाव पड़ता है। शिक्षा परिवर्तन से प्रभावित होती है और उसे प्रभावित भी करती है। इसलिए, शिक्षा पर पुनर्चिन्तन और शिक्षा का पुनर्नवीनीकरण आज की एक अनिवार्यता है।
सामाजिक परिवर्तन के परिणाम स्वरूप उठने वाले शैक्षिक प्रश्नों के प्रसंग में लिखे गए छब्बीस निबंधों को यहां संकलित किया गया है। ये लेख - निबंध शिक्षा में खुलेपन, स्वायत्तता, सृजनशीलता, स्कूल का व्यसन, ग्रामीण सरोकार, मूल्यबोध, सामाजिक न्याय, अहिंसक मस्तिष्क का विकास, भारतीय ज्ञान और परम्परा की प्रतिष्ठा उत्तम पाठ्य सामग्री का निर्माण, संवाद (वाग्मिता) की शिक्षा, डॉ० राधाकृष्णन के "मस्तिष्क की उन्मुक्तता" के आग्रह और पावलो फ्रेरे के "क्रान्तिकारी मानववाद" आदि विषयों को केन्द्र में रख कर लिखे गए हैं।
लेखक की विचार है कि शिक्षा संरक्षण और परिवर्तन के बीच संगति बैठाने के कठिन कार्य को संपादित करने के लिए अभिशप्त है। राष्ट्र और समाज की " अस्मिता" को अक्षुष्ण बनाए रखने के लिए जहां एक ओर नई पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक धरोहर और स्वदेशी मूल्यों एवं आग्रहों का अध्ययन अनुशीलन करना चाहिए वहीं परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करने के लिए उसमें प्रश्नाकुलता, सृजनशीलता और सामाजिक संवेदनशीलता का उद्रेक भी होना चाहिए। तभी शिक्षा हर पीढ़ी के लिए "जनतंत्र की दाई" की भूमिका का निर्वाह कर ऐसे नागरिकों का निर्माण करने में सहायक हो सकेगी "जिन पर नेतृत्व करना सरल हो किन्तु जिन्हें हाँका नहीं जा सके, जिन पर राज्य करना सरल हो किन्तु जिन्हें गुलाम बनाना असंभव हो।"