Sharma, Acharya Devendranath

Rashtrabhasha Hindi:samsyayen aur samadhan v.1987 - Allahabad Lokbharti Prakashan 1987 - 210 p.

हममें से बहुतों का विश्वास है कि भाषा का धर्म के साथ अभिन्न सम्बन्ध है, अर्थात् कोई धर्म-विशेष किसी विशेष भाषा में ही अभिव्यक्ति पा सकता है। हिन्दुओं की दृष्टि में हिन्दू धर्म की भाषा संस्कृत है। इसीलिए मांगलिक अवसरों पर अथवा यज्ञों में संस्कृत का प्रयोग आवश्यक माना जाता है। मुसलमानों का है कि अरबी इस्लाम की भाषा है। इसी तरह प्रत्येक धर्म के अनुयायी किसी-न-किसी भाषा से अपने धर्म का सम्बन्ध जोड़ लेते हैं और बड़े कट्टरपन से उसका समर्थन करते हैं, किन्तु तर्क की कसोटी पर यह धारणा सदा ग्राह्य नहीं दीखती । यदि संस्कृत हिन्दू धर्म की भाषा है तो हजार में नौ सौ निन्यानवे हिन्दू हिन्दू नहीं कहला सकते, क्योंकि संस्कृत से उनका परिचय नहीं है। कितने हिन्दू ऐसे हैं जिन्होंने, समझने की बात तो दूर, वेदों के दर्शन भी किये हैं ? करोड़ों की संख्या में ऐसे मुसलमान हैं जो अरबी बिलकुल नहीं जानते, पर किसी अरबी जाननेवाले मुसलमान से अपने को किसी अंश में हीन नहीं मानते । ईसाई होने के लिए हिब्रू का जानना अनिवार्य नहीं है । हिब्रू की बात तो छोड़ दीजिए, बाइबिल का अंग्रेजी अनुवाद भी बहुत ईसाई नहीं समझ पाते । भारत के आदि वासी क्षेत्रों में ऐसे बहुत-से ईसाई हैं जिन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया है, किन्तु शिक्षा के अभाव के कारण बाइबिल समझने में असमर्थ हैं, पर इससे उनकी ईसाइयत में कोई बट्टा नहीं लगता। चीन में करोड़ों की संख्या में बौद्ध हैं जो त्रिपिटक की भाषा से बिलकुल कोरे हैं, पर अपने को उसी निष्ठा से बौद्ध धर्म का अनुयायी मानते हैं जिस निष्ठा से कोई त्रिपिटकआचार्य ।

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