कोई भी मानव समाज, चाहे वह प्राचीन हो या आधुनिक, सामाजिक घटनाओं व दुर्घटनाओं से पूर्णतया मुक्त न था और न है; उन घटनाओं के प्रति समाज के सदस्यों के मस्तिष्क में कुछ-न-कुछ जागरूकता भी अवश्य रही होगी। इस रूप में यह स्पष्ट है कि 'समाजशास्त्र' का अस्तित्व, चाहे वह लिखित हो या अलिखित स्पष्ट हो या अस्पष्ट, वैज्ञानिक हो या अवैज्ञानिक, सामाजिक इतिहास के प्रत्येक स्तर पर अवश्य ही रहा होगा। इसीलिए श्री राबर्ट बीरस्टीड का कथन है कि समाजशास्त्र का अतीत काफी प्राचीन या लम्बा है। इसी कारण श्री गिसबर्ट ने भी यह मत व्यक्त किया है कि "यदि मानव स्वभाव से एक दार्शनिक है तो वह स्वभावतः ही एक समाजशास्त्री भी है।" ये स्वाभाविक समाजशास्त्री' अपने-अपने दृष्टिकोण से सामाजिक जीवन, सामाजिक सम्बन्ध, सामाजिक संरचना व व्यवस्था और साथ ही सामाजिक विसंगति व संघर्ष को समझने व समझाने का प्रयास निरन्तर करते आये हैं। फलतः ढेर सारे समाजशास्त्रीय संदर्भों का विकास अब तक हुआ है। यह पुस्तक उसी ढेर का एक विनम्र अंश मात्र है ।
यद्यपि यह पुस्तक रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय द्वारा एम० ए० (समाजशास्त्र) उत्तरार्द्ध के विद्यार्थियों के लिए निर्धारित नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार लिखित एक सम्पूर्ण पाठ्यपुस्तक है, फिर भी अन्य अनेक भारतीय विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों के लिए भी यह समान रूप से उपयोगी सिद्ध होगी, ऐसी ही आशा है। सर्वगुणसम्पन्न अथवा सर्वदोषरहित यह एक मात्र मौलिक पाठ्य-पुस्तक है— इस प्रकार का हास्यास्पद दावा मैं नहीं करता। मैंने तो केवल अपने पूर्व अनुभव से काम लिया है, अन्य अनगिनत विद्वानों की रचनाओं को साभार आधार बनाया है, आवश्यकतानुसार भारतीय उदाहरणों द्वारा विद्वानों के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करने में कंजूसी नहीं की है, विषय के सरलीकरण के चक्कर में वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण एवं वैज्ञानिक स्तर को टूटने नहीं दिया है और सदा की भाँति अपनी सरल-स्वाभाविक लेखन-शैली से इसे श्रृंगारा है— इन सबके सम्मिलन से जो कुछ बन पाया है, बस वही प्रस्तुत है मेरे स्नेही विद्यार्थियों एवं विज्ञ प्राध्यापकों की सेवा में। अच्छे-बुरे का मूल्यांकन भी उन्हीं पर छोड़ा है।