Paryavaran,pradushan aur ham v.1989
- New Delhi Taxashila Prakashan 1989
- 94 p.
यह पुस्तक पर्यावरण से परिचित कराने तथा प्रदूषण का अहसास कराने का एक विनम्र प्रयास है। आज प्रकृति अथवा पर्यावरण के साथ मनुष्य के सम्बन्धों की चर्चा करना नई परिस्थितियों में अनिवार्य हो गया है। प्रकृति मनुष्य के साथ कई रूपों में जुड़ी है— जल, वायु, जीव-जन्तु, पादप, खनिज, कृषि आदि मनुष्य का प्रारम्भिक सम्बन्ध-सूत्र प्रकृति के साथ पहले आत्मीयता का था; अब विज्ञान, प्रौद्योगिकी और सभ्यता के विकास के युग में इतना बदल गया है कि वह उसे मात्र दोहन का स्रोत समझने लगा है। उपभोक्ता संस्कृति के तहत प्रकृति के संसाधनों का इतना दोहन होने लगा है कि जनसंख्या की वृद्धि के साथ प्राकृतिक संसाधन समाप्त होते जा रहे हैं और प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इससे पर्यावरण विकृत होता जा रहा है जिसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं। भूचाल, ज्वालामुखी विस्फोट, अनावृष्टि, अति वृष्टि, तूफान, सूखा, मरुस्थलीकरण, जल स्रोतों का सूखना, जीवों और पादपों की कई प्रजातियां का लुप्त होना, बीमारियाँ, मृदा की अनुर्वरता, अकाल, भू-स्खलन, जल और वायु का प्रदूषण आदि इसके कुछ उदाहरण हैं। नगरीकरण तथा औद्योगीकरण के कारण पर्यावरण को बहुत हानि उठानी पड़ रही है।
अतः पर्यावरण शिक्षा आज की परिस्थितियों में बहुत आवश्यक है । प्रस्तुत पुस्तक में पर्यावरण रक्षा की आवश्य कताओं, प्रदूषण के स्रोतों और प्राकृतिक जीवन की गुणता पर विचार किया गया है। इस दृष्टि से यह एक बहुत बड़े खतरे की ओर संकेत करती है और उससे बचने के लिए किये जाने वाले उपायों के प्रति सचेत भी करती है।