मानव किसी शून्य में जन्म न लेकर एक विशेष भौगोलिक परिवेश में जन्म और विकास पाता है, जो धरती, आकाश, नदी, पर्वत, वनस्पति आदि का संपात है। मनुष्य का शरीर जिन पंच तत्वों का सानुपातिक निर्माण है, वे ही व्यापक रूप से उसके चारों ओर फैले हुए है। इस भौतिक परिवेश का स्वभाव ही प्रकृति है और किसी कारण से उसमें विरोधी तत्वों का उत्पन्न हो जाना ही विकृति कहा जायेगा । मानव जब इस भौतिक परिवेश के सम्पर्क में बाता है, तब इसे कभी अपने जीवन के अनुकूल बनाने और कभी इसके अनुकूल बनने का जो प्रयत्न करता है, उससे उत्पन्न सामंजस्य ही मानव संस्कृति को गतिशील बनाता चलता है। वस्तुतः मनुष्य जाति की जीवन-पद्धति धर्म, दर्शन, कला, साहित्य बादि उसके विकास के विविध आयाम ही कहे जायेंगे । प्रकृति मानव के करण अर्थात् इन्द्रियों द्वारा प्राप्त रूपरसगन्धस्पर्श ध्वनि का विषय भी है और उस उपलब्धि से उत्पन्न अनुमान, कल्पना, आस्था, विचार, सौन्दर्यबोध, जिज्ञासा आदि का कारण भी मनुष्य-चेतना की विविध वृत्तियों के अनुसार उसकी दृष्टि प्रकृति के सम्बन्ध में भी विविध हो गई है। कभी उसकी दृष्टि विषयपरक है, कभी देवत्व और रहस्यमूलक ।