Jaiswal, Deepak

Buddh Aur Pharao - New Delhi Vani Prakashan 2025 - 149 p.

“चीनांशुकामिव केतोः प्रतिवातम् नियमानस्य” वैसे तो कालिदास ने यह बात दुष्यन्त के बहाने प्रेमियों के मन के लिए कही है कि जहाँ प्रिय की स्मृतियाँ हर ओर बिखरी हों, वह रमणीय स्थान छोड़कर जाते हुए मनुष्य का मन रथ की रेशमी पताका-सा (विपरीत बहती हवा के आघात से) पीछे की ओर ही मुँह किये फड़फड़ाता रहता है, पर नौकरी की तलाश में गाँव-क़स्बा छोड़कर शहर आ बसने को मजबूर नवयुवकों या किसी कॉन्फ्लिक्ट जोन से खदेड़ दिये गये मासूम विस्थापितों के मन पर भी यही बात लागू होती है। तभी तो इस सदी की बहुतेरी बड़ी कविताएँ उन इयत्ताओं, प्रसंगों और चरित्रों का मार्मिक आख्यान हैं जो कहीं पीछे छूट गये। इस संग्रह के परिप्रेक्ष्य में कहें तो “लूनी नदी” जो असमय ही सूख गयी; बहुत देर रात धान काटकर आते दादा जिनका हँसिया “चाँद की तरह दीखता” और जिनका पेट इतना चिपका होता कि" दोनों तरफ़ की पसलियाँ चाँद की तरह दीखतीं”; भूख से मरे वे सब पुरखे “जिनकी आँख का पानी नहीं मरा"; पुरखों के घर जहाँ “उनके संघर्ष, आँसू, दर्द, खुशी—सबके निशान/दुनिया की सबसे सुन्दर अदृश्य लिपि में/उन दीवारों में शिलालेख की तरह टंकित होते हैं"; दूर ब्याह दी गयी पढ़ाकू दीदी जो किताबें और अपनी दूसरी चीजें छूने पर घण्टों बहस किया करती थी, फ़ोन पर कहती है “भैया, अब सब तेरे हैं"—कमरा, साइकिल, माँ-बाबूजी और किताबें। माटी की मूरतों में प्राण भरने वाले माट साहब, जिनकी जेब में दो रंगों की कूचियाँ होतीं “आँखों में भरते एक से आसमान/दूजे से सिखाते धरती पर चलना"; गाँव-घर के मुस्लिम चाची-चाचा जो अब डरे-से रहते हैं—पैरों का मोच बैठाने में निष्णात उम्मत चाची, ज़मीन से पेट दबाकर सोने वाले दर्ज़ी चाचा नाज़िम अली, हुलिये से बच्चों को चेग्वेरा होने से बचा लेने वाले हजाम चाचा हशमत; एक पैर पर तपस्या करने वाले पेड़ जो असल भगीरथ थे—धरती पर पानी उतारने वाले; एक जोड़ी जूते में से सिर्फ़ एक जूते की तरह अकेले दिखते विधुर; “माँ और सुरुज देव”, और सबसे ज़्यादा तो बाबूजी जिनका कॉस्मिक विस्तार उनको अनन्त वैभव देता है और कविता को एक अलग ऊँचाई। पिता पर इतनी अच्छी कविता कम ही लिखी गयी हैं।

9789369444052


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