अल्बैर कामू का ‘पतन’ उपन्यास उनकी अन्य कृतियों से कुछ भिन्न है। वह इसलिए कि इसमें घटनाओं के वे घात-प्रतिघात देखने को नहीं मिलते जो कथा को नाटकीय अन्त प्रदान करते हैं। इस उपन्यास का नायक एक सैलानी है जो न सिर्फ़ दो-दो विश्वयुद्धों के विश्वव्यापी प्रभावों के दौर से गुज़र चुका है, बल्कि वर्तमान सभ्यता के भविष्य को लेकर भी वह आशंकित है। वह देखता है कि अन्तहीन विसंगतियों और जड़ताओं ने मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने दिया है और मानवीय मूल्यों का खोखलापन जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित कर रहा है। पतन के कगार पर पहुँची हुई इस सभ्यता के एक प्रेक्षक, भोक्ता और प्रवक्ता के रूप में वह घटना-स्थितियों और मनःस्थितियों को आँकता है और उन्हें जिस तीखेपन के साथ सामने रखता है उससे पाठक के मन में बहुत कुछ जागने लगता है। नायक की आशंकाएँ और चिन्ताएँ उपन्यास में इतनी प्रामाणिक हैं कि इससे गुज़रते हुए हम महसूस करने लगते हैं कि कथानायक कहीं स्वयं लेखक ही तो नहीं!