आत्मनेपद - 'आत्मनेपद' में, जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, 'अज्ञेय' ने अपनी ही कृतियों के बारे में अपने विचार प्रकट किये हैं—कृतियों के ही नहीं, कृतिकार के रूप में स्वयं अपने बारे में। अज्ञेय की कृतियाँ भी, उनके विचार भी निरन्तर विवाद का विषय रहे हैं। सम्भवतः यह पुस्तक भी विवादास्पद रही हो। पर इसमें न तो आत्म-प्रशंसा है, न आत्म-विज्ञापन; जो आत्म-स्पष्टीकरण इसमें है उसका उद्देश्य भी साहित्य, कला अथवा जीवन के उन मूल्यों का निरूपण करना और उन पर बल देना है जिन्हें लेखक मानता है और जिन्हें वह व्यापक रूप से प्रतिष्ठित देखना चाहता है। अज्ञेय ने ख़ुद इस पुस्तक के निवेदन में एक जगह लिखा है—'अपने' बारे में होकर भी यह पुस्तक अपने में डूबी हुई नहीं है—कम-से-कम इसके लेखक की 'कृतियों' से अधिक नहीं!' अज्ञेय की विशेषता है उनकी सुलझी हुई विचार परम्परा, वैज्ञानिक तर्क पद्धति और सर्वथा समीचीन युक्ति युक्त भाषा-शैली। अज्ञेय के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने के लिए 'आत्मनेपद' उपयोगी ही नहीं, अनिवार्य है; साथ ही समकालीन साहित्यकार की स्थितियों, समस्याओं और सम्भावनाओं पर उससे जो प्रकाश पड़ता है वह हिन्दी पाठक के लिए एक ज़रूरी जानकारी है। इस पुस्तक का अद्यतन संस्करण प्रकाशित करते हुए भारतीय ज्ञानपीठ प्रसन्नता का अनुभव करता है। 'अज्ञेय' पर उनके समकालीनों के अभिमत 'हिन्दी साहित्य में आज जो मुट्ठीभर शक्तियाँ जागरूक और विकासमान हैं, अज्ञेय उनमें महत्त्वपूर्ण हैं। उनका व्यक्तित्व गम्भीर और रहस्यपूर्ण है। उनको पहचानना कठिन है।... सर्वतोमुखी प्रतिभा से सम्पन्न यह व्यक्तित्व प्रकाशमान पुच्छल तारे के समान हिन्दी के आकाश में उदित हुआ...।'—प्रकाशचन्द्र गुप्त
9788126320677
Hindi Literature; Personal Essays; Jnanpith awarded author