कविवर श्री सिद्धिलाल विद्यार्थी जी की रगडूवात शापित लोक काव्यधारा पर्वतीय संस्कृति की दिशा में एक वास्तविक कदम, गढ़जनजीवन पर डाली गई पैनी दृष्टि और पहाड़ और गढ़वाल में प्रकृति के नैसर्गिक वरदान की ओर पाठक का ध्यान आकर्षित करती है। उत्तराखण्ड का सेवा में कविश्रेष्ठ ने स्वयं को मानस निधियों के व्यक्ति समूह के अंतर्गत स्थापित रखने का सुप्रयास किया है।
इस पृष्ठभूमि में: मानवता, मानवी अनुभूतियों का सरस चित्रण, पर्यावरणीय दशास्थितियों का स्पर्श, पर्वत के प्रति संवेनदशीलता के माध्यम से पहाड़ की पीड़ा और लोक जीवन में विद्यमान दुख: दर्द, कड़वे-मीठे स्वादों की व्याख्या, उक्त सबके बीच सामुदायिक एकता के स्वर, आशा-निराशा की गति लहरियाँ, विचलित पथ और निम्न मानवीय चेष्टाएँ, प्रकृति प्रकोप को सहने का लोक संज्ञान, सामान्य जागरण के लिए आह्वान, देश की शान अर्थात् दुनियाँ के मुकुट नगराज हिमालय का गढ़वाली में सरल गुणगान, सर्वव्याप्त भौतिकवाद पर साहित्य दृष्टि, संगठन के साथ-साथ विचलनकारी प्रवृत्तियों का सहज चित्रण आदि संक्षिप्त विचारबिन्दु रचना की संरचना को आकार प्रदान करते हैं। चर्चित लोगों के लिए यह अनुकरणीय है।