Tewari, Chandrashekhar (ed.)

Uttarakhand: holi ke lok rang - Dehradun Samay sakshay 2016 - 167 p.

भारतीय संस्कृति में होली पर्व को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। वसन्त ऋतु में मनाया जाने वाला यह पर्व आदि काल से गीत-संगीत व आनंद-उल्लास के साथ-साथ मौज-मस्ती और स्वच्छंदता का प्रतीक माना जाता रहा है। होली के सन्दर्भ में उत्तराखण्ड की अपनी एक अलग पहचान है। उत्तराखंड के पूर्वी भाग, कुमाऊं अंचल में होली का पर्व अत्यन्त उत्साह और परम्परा के साथ मनाया जाता है। माना जाता है कि चंद राजाओं के समय में भी यहां होली गायन की विधा मौजूद थी। कुमाऊं अंचल में पदम वृक्ष की टहनी को सार्वजनिक स्थान पर गाड़ने व चीर बंधन के बाद फाल्गुन एकादशी को रंग-अनुष्ठान होता है जिसके पश्चात खड़ी होलियां शुरू हो जाती हैं। यह खड़ी होलियां छलड़ी (मुख्य होली) तक चलती हैं। खड़ी होली की विशेषता यह है कि होल्यारों (होली गायकों) द्वारा गोल घेरे में खड़े होकर विशेष पद संचालन व नृत्य के साथ गायी जाती है। गढ़वाल अंचल की होली के सन्दर्भ में यदि हम बात करें तो वहां अपेक्षाकृत कुमाऊं जैसा स्वरूप तो नहीं दिखायी देता परन्तु श्रीनगर, पौड़ी, टिहरी और उससे लगे गांव इलाकों में होली की थोड़ी बहुत झलक दिखायी देती है। यहां की होली में भी मेलू (मेहल) के पेड़ की डाली को होलिका के प्रतीक रुप में जमीन में गाड़कर प्रतिष्ठा करने और होली गाने का प्रचलन है। जानकार लोग बताते हैं कि किसी समय गढ़वाल की राजधानी रहे श्रीनगर और पुरानी टिहरी के राजदरबारों में भी होली गायन की समृद्ध परम्परा विद्यमान थी। यह प्रसन्नता की बात है होली गायन की इस परम्परा को आज भी कुछ प्रबुद्ध संस्कृतिकर्मी कायम रखे हुए हैं।

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Festival
Holi

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