Gautam, Ramesh (ed.)

Hindi rangmanch ka lokpaksh - New Delhi Swaraj 2020 - 480 p.

संस्कृत की विश्वविख्यात उज्ज्वल नाट्य परम्परा के बाद हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक तीन कालों को नाटक का अन्धकार काल माना गया। ऐसी धारणा बनी और बनाई गयी कि मध्यकाल तक हिन्दी नाटक और रंगमंच का बीजवपन तक नहीं हो पाया। इसके कारण राजनीतिक और ऐतिहासिक थे। हैरान करने वाली बात तो यह रही कि जिस संस्कृति-निर्माण में नाट्यधर्मी संस्कृत नाट्य की गौरव गरिमा अभूतपूर्व रही, वहाँ नाट्य की उर्वर भूमि कैसे बंजर हो गई? क्या वास्तव में यही वस्तुस्थिति है? नहीं, बिल्कुल नहीं जातीय जीवन में संचरित लोकनाट्य इस भ्रान्त धारणा को तोड़ते हैं। संस्कृत की शास्त्रीय नाट्य परम्परा के समानान्तर जनजीवन और समाज की आनुष्ठानिकता में प्रचलित धार्मिक नाट्य, स्वांग तथा लीलानाट्य इस धारणा का निराकरण करते हैं। स्वयं तुलसी और वल्लभाचार्य ने अपनी-अपनी नाट्यमंडलियों का गठन कर नाट्य को लोकाश्रित कर जन-जन तक पहुँचाया। इन्हीं रंग-प्रयासों से भारत की लोकसांस्कृतिक मनोभूमि का गहराई से निर्माण हुआ, जिसे आज तक महसूस किया जा सकता है। सच्चाई तो यह है कि नाट्यशास्त्र की विशद् शास्त्रीयता के पीछे लोकधर्मिता की ही आधारशिला है। इसीलिए स्वयं आचार्य भरत लोकसिद्ध को ही नाट्यसिद्ध घोषित करते हैं। अतः कहना चाहिए कि लोक की इयत्ता अपरिहार्य और निर्विवाद है। हिन्दी का लोकनाट्य और रंगकर्म इसका प्रमाण है।

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