Smritiyon ka smugler
- 1st ed.
- Bikaner Sarjana 2018
- 160 p.
निर्मलजी के अत्यंत कलात्मक भाषा व्यवहार पर लेखक की रीझ - खीझ इस पुस्तक में देखते ही बनती है। कहीं वह अपने प्रौढ़-व्यवहार में ज्ञानमीमांसीय आयाम लेती जान पड़ती है, तो कहीं-कहीं पाठकीय तुतलाहट का एक अनाड़ी नमूना भर दिखाई पड़ती है। यही वाचक शिवदत्त का कुरुक्षेत्र है, जिसमें वह निर्मलजी सरीखे संधित्सु तीरंदाज के मुकाबले में जिज्ञासा की सहस्र श्रवणा त्वचा मात्र ओढ़े निष्कवच खड़ा नजर आता है। पाठक और लेखक के रिश्ते का यह आत्यंतिक रूप से दुर्लभ आर्जव सहसा उस अर्जुन की याद जगा देता है जिसने कुरुक्षेत्र के मैदान में कृष्ण से दो -टूक शब्दों में -'व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव कह दिया था—“ मे!' हे कृष्ण, तुम्हारे ये मिश्रित-से वाक्य मेरी बुद्धि को मोहित कर रहे हैं। उस अर्जुन के सम्मुख उत्तर देने के लिए स्वयं श्रीकृष्ण उपस्थित थे; लेकिन यहाँ केवल उपन्यास का पाठ है और उसके वाचन की प्रक्रिया में शब्द-दर-शब्द और पंक्ति-दर-पंक्ति सिर उठाती जिज्ञासाएँ हैं कि इस पाठ का मूल अस्वाद्य तत्त्व इसके इस जिद्दी वाचक को हृदयंगम हो तो कैसे?
एक अर्थ में यह किताब लेखक और पाठक के बीच सदा मौजूद रहने वाले उस भौतिक अंतराल को पाटने का चेतनापरक उपक्रम भी है, जो निर्मलजी के न रहने के न कारण एकदम अलंघ्य ही हो चला है।