Shah, Ramesh Chandra

Aap kahin nahin rahate vibhuti babu - Bikaner Vagdevi 2001 - 112 p.

रेल की खिड़की के पार बेतहाशा भागते जंगल, पठार, खेत, दृश्य पर दृश्य। लगातार पीछे छूटते दृश्य में कोई अकेला पेड़, पीछे छूटते स्टेशन से हवा में तैर कर आया कोई अधूरा वाक्य, हमें गर्दन मोड़ कर पीछे देखने को विवश करता है। ठीक इसी तरह लगातार आगे को बढ़ रहे इस उपन्यास के नायक विभूति बाबू का जीवन भी तेज़ी से पीछे को छूटता जा रहा है। इन परस्पर विरोधी गतियों में किसी का कोई 'निहायत ही मामूली जुमला' उन्हें ठिठका देता है। वे पलट कर देखते हैं तो पिछे अपने ही बिम्बों सरूपों की लम्बी पाँत खड़ी पाते हैं। हर चेहरा उनका है या कुछ कुछ उनके जैसा है या उनका चेहरा उस जैसा हो सकता था या फिर उस जैसा होना चाहिये था। लेखक, अध्यापक, किसी के बेटे, किसी के पति, पिता, मित्र, पड़ोसी — विभूतिनारायण आत्मबिम्ब की खोज में अपने जीवन का हर कोना-अंतरा खंगालने में जुट जाते हैं। अपनी लेखनी में, पाण्डुलिपियों में, दूसरे लेखकों की रचनाओं में, तम्बाखू खाने की अपनी लत में, अपने ला-इलाज पेट के रोग में, अपने असफल पिता में, बूढ़ी दीवाली की रौनक को ढाँप लेते अन्धकार में, दुःस्वप्नों में, मेले में, दूसरों की जीवनियों में, योग में, खुद अपने नाम में; यहाँ तक कि, स्वयं सृष्टिकर्ता की विभूतियों में भी वे अपनी तलाश जारी रखते हैं।
इस खंगालने की प्रक्रिया में जो रस्साकशी, उलट-फेर, ऊहापोह मचती है उसके चलते विभूति बाबू की जीवनी का कथाक्रम पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है। और इसी में से उपन्यास का नितान्त अनूठा विन्यास जन्म लेता है। यहां वर्तमान, अतीत, भविष्य सब आपस में गड्डमड्ड हो जाते हैं। विभूतिनारायण खुद इस उपन्यास के पात्र भी हैं, इसके स्रष्टा भी और कितने ही कोणों से उसे देखते द्रष्टा भी। यह विभूति बाबू की आत्मकथा भी है, आत्मकथा लिखने की समस्या या सम्भावना असम्भावना पर बृहत् विमर्श भी है। यह उपन्यास के भीतर एक कृति का दूसरी अनेकानेक कृतियों से संबाद भी है। यह एक सामान्य मनुष्य की वृत्तियों की दूसरों की वृत्तियों के साथ छेड़ छाड़ भी है। यह लेखक के संशयों की दूसरे लेखकों के संशयों से टकराहट भी है।
यह कृति अपनी भाषा, अपनो शैली में ललित निबन्ध की स्वतन्त्रता, विचार की सघनता तथा उपन्यास के विस्तार और रोचकता तीनों को एक साथ समेटे है।

8187482192


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