श्रीमद्भगवद्गीता के प्रवक्ता भगवान श्रीकृष्ण का नाम कौन नहीं जानता, जिन्हें भागवत में 'भगवान् स्वयम्' कहा गया है ?
जहाँ तक स्मृति पहुँच पाती है, बचपन से ही श्रीकृष्ण मेरी कल्पना में छाये रहे हैं। बचपन में उनके पराक्रमों की कथाएँ सुनकर आश्चर्य से मेरी साँस टॅगी रह जाती थी। उसके बाद मैंने उनके बारे में पढ़ा, उनके गीत गाये, उनकी प्रशंसा की और शत-शत मन्दिरों में तथा उनके जन्मदिन पर प्रतिवर्ष घर में उनका पूजन किया। और वर्षों से, दिनानुदिन, उनका सन्देश मेरे जीवन को बल देता रहा है।
खेद है कि महाभारत के जिस मूल रूप में उनके आकर्षक व्यक्तित्व की
झाँकी मिल सकती है, उसे दन्तकथाओं, मिथकों, चमत्कारों और पूजन-अर्चन
ने ढँक रखा है। वे बुद्धिमान और वीर थे; स्नेहाल और स्नेह-भाजन थे; दूरदर्शी होकर भी वर्तमान समय के अनुकूल आचरण करते थे, उन्हें ऋषियों-जैसी अनासक्ति प्राप्त थी, फिर उनमें पूर्ण मानवता थी। वे कूटनीतिज्ञ थे, ऋषितुल्य थे, कर्मठ थे। उनका व्यक्तित्व दैवी-प्रभा से मण्डित था।
फलतः बार-बार मेरे मन में यह इच्छा उठती रही कि मैं, उनकी
वीर गाथा का गुम्फन करके, उनके जीवन और पराक्रमों की कथा की पुनर्रचना
का कार्य आरम्भ करूँ।
कार्य प्रायः असाध्य था, किन्तु शतियों से भारत के विभिन्न भागों में अच्छे-बरे और उदासीन लेखकों के समान मुझे भी एक अदम्य इच्छा ने विवश किया और मेरे पास जो भी थोड़ी-सी कल्पना और रचनात्मक शक्ति थी, चाहे वह जितनी क्षीण रही हो, उसकी अंजलि चढ़ाने से मैं अपने को रोक नहीं सका।