'सिनेमागोई' में हिन्दी सिनेमा, उसके गाने, किरदार, और अदाकारों पर रोचक आलेख हैं. आम तौर पर फ़िल्म, उसके किरदारों या गानों की समीक्षा बहुत स्थूल, figurative और verbose लगती हैं. पर इस किताब में हर चीज़ को बहुत बारीक नज़र से देखा गया हैं. यह बारीकी बयान करते वक़्त लेखक जिस लहजे का इस्तेमाल करते हैं, वह संगीत या चित्रकला के अमूर्तन के नज़दीक लगता है, जैसे कोई ध्रुपद गा रहा हो या कोई अमूर्त चित्र बना रहा हो. किताब हिन्दी सिनेमा के नायाब गीतों, किरदारों की रोचक सिनेमागोई है। हैरत इस बात पर होती है कि नवल किशोर व्यास सिनेमा के हर पक्ष पर बेबाक और सारगर्भित टिप्पणी करते हैं, जो उन्हें लिखने के लिए मजबूर करती है। गोया, वे इस रूप में एक लेखक या पत्रकार न होकर, दास्तानगो की शक्ल में 'दास्तानगोई' कर रहे हों, जो सिनेमा के सन्दर्भ में 'सिनेमागोई' हो गया है।
छोटे-छोटे अध्यायों से बड़े अर्थ पैदा करती हुई यह किताब न सिर्फ़ पठनीय बन पड़ी है, बल्कि अपने अनूठे ढंग की मीमांसा, बयान की संक्षिप्ति, भाषा के सहज, सरल प्रयोग और आधुनिक दृष्टि से विचार करने के चलते समकालीन सन्दर्भों में महत्त्वपूर्ण बन गयी है। हिन्दी भाषा के अन्तर्विषयक सन्दर्भों के लिए ऐसी और पुस्तकों की आवश्यकता है। यह किताब सिनेमाप्रेमियों के लिए ही नहीं, बल्कि हर उस भाषा और संस्कृतिप्रेमी के लिए एक ज़रूरी दस्तावेज़ है, जो सिनेमा को समाज का एक बड़ा प्रतिबिम्ब मानते हैं। ऐसी सुविचारित और सार्थक कृति के लिए रचनाकार का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ कि हम 'सिनेमागोई के बहाने कुछ बेहतर पढ़ पा रहे हैं ।