Badalon ka tabadalon se sambandh
- New Delhi Vani Prakashan 2012
- 130
हिन्दी व्यंग्य के समकालीन परिदृश्य में एक अजीब भभ्भड़ मचा हुआ है। व्यंग्य को एक अत्यंत सरल कार्य मान लिया गया है। लगभग बच्चों का खेल जैसा। एक घिसा-पिटा चुटकुला, व्याकरण तक को धता बताती पिटी सपाट भाषा और न जाने किसी पारलौकिक या वायवीय जीवन का साक्षात्कार कराती ऐसी रचना जिसमें न हास्य है, न विट, न लक्षणा-व्यंजना, न आयरनी, न बात को कहने का ढंग, फिर भी एक बालहठ-सी है कि व्यंग्य कहा जाये ।