Kakeyi Ke Ram
Material type:
- 9789373480329
- H SIN R
Item type | Current library | Call number | Status | Date due | Barcode | Item holds |
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Gandhi Smriti Library | H SIN R (Browse shelf(Opens below)) | Available | 181256 |
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H SIN R Badal jo barash gaya | H SIN R Peerhi-Der- Peerhi | H SIN R Jo itihas mein nahin hai | H SIN R Kakeyi Ke Ram | H SIN S T.V.mein champa | H SIN S Saat suraj sattavan taare | H SIN S Chalti chaaki |
‘कैकेयी के राम' एक औपन्यासिक कृति है जिसका सारतत्तव राम की वह यात्रा है जो उन्हें दशरथ कुमार से मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की पूर्णता तक ले जाती है। इसके केन्द्र में एक प्रश्न भी है कि इस यात्रा की पाथेय राम की मझली माँ कैकेयी थीं और राम इस सत्य से पूरी तरह अवगत भी थे, फिर यह संसार इस सत्य को स्वीकार क्यों नहीं कर पाया? 'तापस वेश विशेष' के साथ वन की सम्पूर्ण यात्रा राम के मूल्यों और आदर्शों के साथ-साथ मर्यादा, सहनशीलता, आदर, सामूहिकता, समभाव, समरसता, सहजता, सरसता, न्यायप्रियता, संघर्ष और साहस के प्रतिमानों की संस्थापनाओं की यात्रा थी, राम पथ से लेकर राम सेतु तक सब इसी के बिम्ब हैं। उनके परमेश्वर होने का मानवीय सर्वोच्च भी यही था, जिसे उन्होंने इस संसार को प्रतिदान में दिया। यह पुस्तक इस यात्रा के सम्पूर्ण कालखण्ड को संवादों के माध्यम से उस लोकमानस के मन को छूने का प्रयास करती है जिसके आधार राम हैं और जिसे वे संवादों के माध्यम से संस्कृति की एक विराट माला में गूँथते हैं। एक ऐसी माला में जो भारतीय मानस में उनके आदर्शों की ही नहीं बल्कि उनके त्याग की निधि से निर्मित सुगन्ध को अतीत से लाकर वर्तमान में बिखेर सके और लोक मन को सहज कर सके, उसे स्पन्दित कर सके। ★★★ “रिपुंजय! हमारा लक्ष्य कालजयी था, अतः बहुत कुछ समय के गर्भ में रहना ही उचित था और अपेक्षित भी। बस इतना ही कहना समीचीन होगा कि मैं यह स्वीकार नहीं कर सकता था कि आप अयोध्या के राजमहल की सरस परिधियों के पीछे अपने जीवन के सार को तिरोहित कर दें। जबकि आपकी मझली माता कैकेयी इससे बहुत आगे की सोच रही थीं। वे आपके जीवन के हर अध्याय में आपकी जय लिखी हुई देखना चाहती थीं। वे अल्पविरामों में बँधी हुई उपलब्धियों और विरामों में उलझी यशगाथाओं को आपके जीवन में कोई स्थान देना नहीं चाहती थीं।” (कैकेयी के विषय में राम से बताते हुए गुरु वशिष्ठ) “माता! यदि आप ने मुझे वन जाने का आदेश पिताश्री के माध्यम से न दिया होता तो मुझे यह पता ही नहीं चलता कि इस राष्ट्र की रक्षा सैनिक ही नहीं आटविक भी करते हैं, योद्धा ही नहीं ऋषि भी करते हैं, अंतेवासी ही नहीं वनवासी भी करते हैं। इसके समृद्ध और सुदीर्घ होने की कामना केवल राजसिंहासन पर विराजे हुए राजा ही नहीं करते हैं अपितु उस देश की सीमाओं के भीतर रहने वाली वन्य जातियाँ और पशु-पक्षी भी करते हैं। हमारी विजय, हमारे यश और हमारी समृद्धि में उनका भी योगदान होता है। बस वे कभी अपना भाग आपसे माँगने नहीं आते, वे तो परमार्थ को ही अपना पुरुषार्थ समझते हैं।” (माता कैकेयी को वनवास का अभिप्राय बताते हुए राम)
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